गजल धर्मानन्द भट्ट (कंचनपुर)


धर्मानन्द भट्ट (कंचनपुर)

गो:रा हुन्थी जात हुन्थी टाढाबटेइ मान्स घर औन्थे।
आफन्त पडौसी खुसी धेकिन्थ्या सब घर बोलौन्थे।

कति निको हुन्थ्यो आनन्द आउन्थी एइपाला कहब
कसैले नाइ बोलायो पैली पैली त बिरुडा खोयौन्थे।

आब सब सकिग्यो संस्कार संस्कृति होटलै भण्णान
पैली त घर बोलाउन्थे निका निका परिकार पकौन्थे।

चेला चेलिन के ब लौन पसे छोटा भ्या निको माण्णा
आब फोटा धेकाउन पड्डे होइग्यो पैलिका के पैरौन्थे।

नास्ता लै के क्या ब आए घर बनायो निकोइ नमाण्णे
केब हो हमरा इजा बाबा त घरैको खान्थे घरै बनौन्थे।

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